Sunday 9 June 2013

ABP न्यूज : ये कैसा ब्रेकिंग न्यूज !

ज एक सवाल ABP न्यूज से करना चाहता हूं, जिसके महत्वपूर्ण न्यूज बुलेटिन की बुनियाद भी " सूत्र " पर जा टिकी है। मैं समझता हूं सूत्रों से मिली जानकारी के आधार पर कोई सामान्य खबर तो एक बार दी जा सकती है, लेकिन देश में जिस मुद्दे पर लगातार बहस चल रही हो, उस बड़ी खबर पर इतनी बड़ी लापरवाही कम से कम मेरी समझ से तो परे है। बात यहीं खत्म हो जाती तो भी एक बार मामले की अनदेखी की जा सकती थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हुआ ये कि गलत खबर पर एंकर राशन पानी लेकर चढ़ गया और वो दूसरों की प्रतिक्रिया लेने में पूरी ताकत से जुट गया। हिंदी पत्रकारिता उस समय और शर्मिंदा हुई, जब वरिष्ठ पत्रकारों की मंडली का एक सदस्य इस पर बहुत ही बचकानी टिप्पणी कर गया। खैर पूरी बात आगे करूंगा, पहले मुद्दे पर आता हूं। आज यानि रविवार को दोपहर डेढ़ बजे के करीब अचानक गोवा में चल रही बीजेपी की कार्यकारिणी से एक खबर ABP न्यूज ने ब्रेक की। जानते हैं खबर क्या थी ? खबर ये कि मोदी को प्रचार कमेटी का चेयरमैन नहीं बनाया जाएगा, उन्हें संयोजक बनाया जाएगा। शर्मनाक बात ये है कि 10 मिनट के बाद ही ये " ब्रेकिंग खबर " झूठी निकली, लेकिन चैनल को भला इससे क्या लेना ! खैर इस बीच क्या हुआ वो भी सुन लीजिए।

बीजेपी कार्यकारिणी को लेकर रविवार को दोपहर में एबीपी न्यूज ने एक मजमा लगा रखा था। इसमें वरिष्ठ पत्रकार ध्यान दीजिए मैं क्या कह रहा हूं, "वरिष्ठ पत्रकार" हिंदुस्तान टाइम्स के राजनीतिक संपादक विनोद शर्मा के साथ ही ट्रेनी वरिष्ठ पत्रकार दिबांग के अलावा दो एक लोग और मौजूद थे। यहां बेमतलब की बातचीत के बीच अचानक टीवी पर फुल स्क्रिन मे "ब्रेकिंग न्यूज" लिखा आया। 10 सेकेंड तक ब्रेकिंग-ब्रेकिंग लिखा देख मैं भी चौकन्ना हो गया। आपको पता है ब्रेकिंग न्यूज क्या थी ? न्यूज ये थी कि " मोदी को प्रचार समिति का अध्यक्ष नहीं संयोजक बनाया जाएगा : सूत्र "। ये खबर ब्रेक हुई होगी दोपहर में लगभग 1.20 पर। जबकि यहीं नीचे लिखा आ रहा था कि डेढ़ बजे इस मामले में अधिकारिक बयाना भी आएगा। सवाल ये उठता है कि अगर डेढ़ बजे अधिकारिक बयाना आना है तो 10 मिनट पहले ब्रेकिंग न्यूज का औचित्य क्या है ? ब्रेकिंग न्यूज भी अपने रिपोर्टर के हवाले से नहीं, वो सूत्र के हवाले से। पहले तो मैं सूत्र के हवाले से ब्रेकिंग न्यूज के ही चलाने के ही खिलाफ हूं। मेरा मानना है कि अगर चैनल किसी खबर की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है, तो पहले तो उसे ब्रेकिंग न्यूज चलाना ही नहीं चाहिए। चलिए दौड़ में आगे निकलने के लिए अगर खबर चलाई भी जाती है तो, ये माना जाना चाहिए कि अपना रिपोर्टर इस खबर पर मुहर लगा रहा है। हां वो अपने सूत्र का नाम नहीं खोलना चाहता, इसलिए नाम नहीं ले रहा है।

मुझे लगता है कि इससे आप सब ही नहीं चैनल के " संपादक जी " लोग भी सहमत होंगे। जानते हैं इस जल्दबाजी के चक्कर मे एबीपी न्यूज ने क्या-क्या गुल खिलाया ? विस्तार से बताना जरूरी है। जैसे ही एक लाइन की खबर आई कि  मोदी चेयरमैन नहीं संयोजक बनेंगे। चैनला का एंकर एकदम से उछल गया। उसकी आवाज एकाएक तेज हो गई। कहने लगा कि मोदी को बहुत बड़ा झटका लगा है। बोला ! चलिए चलते हैं सीधे गोवा और बात करते हैं अपने रिपोर्टर से। अब ये रिपोर्टर मेरा मित्र ही नहीं छोटे भाई जैसा है, इसलिए मैं नाम नहीं ले सकता। बहरहाल ब्रेकिंग न्यूज में भले ही खबर सूत्र के हवाले से कही गई हो, लेकिन रिपोर्टर ने ऐलान कर दिया कि " बीजेपी कार्यकारिणी की ये आज की सबसे बड़ी खबर है कि मोदी को अब प्रचार समिति का चेयरमैन नहीं बनाया जा रहा है। उन्हें समिति का संयोजक बनाया जाएगा। रिपोर्टर ने अपनी ओर से इसके दो तीन कारण भी गिना दिए। हास्यास्पद तो ये रहा है कि उसने पार्टी के संविधान की दुहाई देते हुए कहाकि पार्टी में संयोजक ही बनाए जाने का प्रावधान है। क्योंकि प्रचार समिति के प्रस्ताव पर अंतिम फैसला अध्यक्ष ही लेते हैं।

मैं फील्ड में काम कर चुका हूं, रिपोर्टर के दबाव को समझ सकता हूं। लेकिन चैनल के एसी बक्से में बैठे लोग कैसे बहक सकते हैं ? जब रिपोर्टर से बातचीत में ये बात साफ हो गई कि वो सारी बातें हवा में कर रहा है, कोई पुख्ता बात नहीं कर पा रहा है, उसके बाद भी चैनल इस विषय को आगे कैसे बढ़ा सकता हैं ? अच्छा मान भी लें कि चैनल अपने रिपोर्टर की बात को आगे बढा रहा है तो ये तथाकथित "वरिष्ठ पत्रकार" क्या कर रहे थे ? सबसे हल्की बात तो हिंदुस्तान टाइम्स के राजनैतिक संपादक विनोद शर्मा ने की ! वो बिना जानकारी को पुख्ता किए कमेंट देने लगे। कहाकि " खोदा पहाड़, निकले राजनाथ " ! अब क्या कहूं, एक राष्ट्रीय पार्टी के बारे में आप इतना भद्दा कमेंट किस हैसियत से करते हैं ? एक पत्रकार के नाते, आम नागरिक के नाते या फिर कांग्रेस में अटूट आस्था रखने की वजह से ? ये जवाब तो विनोद शर्मा ही दे सकते हैं । इस मजमें में एक शख्स गुलाबी शर्ट में और भी मौजूद था। वो भी खबर को पुख्ता होने का इंतजार किए बगैर जिस तरह मुद्दे पर रियेक्ट कर रहा था, लगा कि जैसे बीजेपी ने उसकी जमीन हड़प ली है। संयोजक बनाए जाने को लेकर ये पत्रकार लोग अपने अंदाज में बीजेपी का चिट्ठा खोल रहे थे, कई बार तो ऐसा भी लगा कि या तो ये लोग बीजेपी कार्यकारिणी की बैठक में खुद मौजूद थे, या फिर इनका पत्रकारिता से लेना देना नहीं रहा, ये कांग्रेस के लिए काम कर रहे हैं।


बहरहाल 10 मिनट में ही ये इतनी गंदगी कर चुके थे कि उसे समेटना आसान नहीं था। इस बीच सच्ची खबर आ गई कि " मोदी प्रचार समिति के चेयरमैन यानि अध्यक्ष होंगे" । इस खबर के बाद तो मैं इन पत्रकारों का चेहरा देखना चाहता था कि अब ये अपना बचाव कैसे करते हैं? लेकिन इनकी बात सुनकर लगा कि ये जितना खाते हैं, उससे कहीं ज्यादा उल्टी करते हैं। मैं तब और हैरान रह गया कि जब मैने देखा कि ये अपनी बातों पर शर्मिंदा होने के बजाए, पूरी चर्चा को दूसरा रूप देने में लग गए। यहां अब बारी थी ट्रेनी वरिष्ठ पत्रकार दिबांग की । दिबांग तो पत्रकार के बजाए मनोचिकित्सक ही बन गए। वो नेताओं की बाँडी लंग्वेज पढ़ने लगे और उन्होंने विनोद शर्मा की बात को आगे बढ़ाते हुए कहाकि ये मौका था कि बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ आनंदित होकर इस बात का ऐलान करते, लेकिन वो मायूस दिख रहे हैं, उन्होंने लोकसभा में नेता विपक्ष सुषमा स्वराज के बाँडी लंग्वेज पर भी सवाल खड़े किए। ये भी पूछा कि राजनाथ मीडिया के सामने मोदी को साथ क्यों नहीं लाए ? सवाल ये भी उठाया गया कि नरेन्द्र मोदी को अध्यक्ष चुने जाने के बाद उन्हें माला पहनाया गया या नहीं,  जिस समय ये ऐलान हुआ, वहां क्या माहौल था। दिबांग जिस तरह का सवाल उठा रहे थे, सच बताऊं तो लगा नहीं कि एक पत्रकार न्यूज चैनल की बहस में ये बातें नहीं  कर रहा है, बल्कि ऐसा लग रहा था कि कोई व्यक्ति 24 अकबर रोड यानि कांग्रेस दफ्तर से पत्रकारों को संबोधित कर रहा है।

आगे बात करूं, इसके पहले दो बातें और कह दूं। ये राजनीति भी किसी को ईमानदार नहीं रहने देती। भाई कोई सरकार हिम्मत करे और सबसे पहले एक काम कर दे कि पत्रकारों और संपादकों को पद्म सम्मान न देने का फैसला कर दे, इसके अलावा ये भी ऐलान कर दिया जाए कि पत्रकारों को राज्यसभा में भी नामित नहीं किया जाएगा। केवल इतने भर से पत्रकारिता में थोड़ा बहुत बेईमानी पर अंकुश जरूर लग जाएगा। मैं देख रहा हूं कि पत्रकार भी आज पार्टी बनते जा रहे हैं। ये वरिष्ठ पत्रकार राजनीतिक दलों के प्रवक्ता से भी ज्यादा बदबू देने लगे हैं। यही वजह है कि तमाम नेता इन्हें चैनलों की चर्चा में " कुत्ता " बना देते हैं, और ये दांत निपोरते हुए चुपचाप सुनते रहते हैं। अगर आप वाकई चैनलों की चर्चा पर पत्रकारों को सुनते होंगे तो अब तक आपको पता चल गया होगा कि आजकल के तथाकथित वरिष्ठ पत्रकार किस पार्टी का राशन तोड़ रहे हैं। चलिए जब गंदगी समाज में आ चुकी हो तो देश के 10 वरिष्ठ पत्रकारों के ईमान बेच देने से ज्यादा कुछ नहीं बिगड़ने वाला है।

एबीपी न्यूज पर फिर वापस लौटता हूं। एबीपी न्यूज के संपादक जी ! क्या आपको नहीं लगता कि ब्रेकिंग न्यूज की विश्वसनीयता के साथ कोई समझौता नहीं होना चाहिए ? आप एक जिम्मेदार चैनल हैं, क्या आपके न्यूज चैनल का एक आम दर्शक होने के नाते मुझे ये जानने का हक है कि इतनी बड़ी ब्रेकिंग न्यूज कैसे गलत हुई ? आपने स्टूडियो में जो पत्रकारों को जो मजमा लगाया था, और उन्हें आपने ही गलत जानकारी देकर उनके मुंह से जो गाली दिलवाई, उसके लिए क्या आपने किसी की जिम्मेदारी तय की है ? पूरे आधे घंटे तक जो ड्रामा आपने क्रियेट किया, और वो बाद में गलत साबित हुआ, क्या उसके लिए देश की जनता से आपको माफी नहीं मांगनी चाहिए? आखिर में एक सवाल और ? आपने दिल्ली और गुजरात के तमाम रिपोर्टर गोवा में झोंक दिए, फिर भी इतनी बड़ी गलती हुई तो आपको नहीं लगता कि चैनल को सार्वजनिक रूप से माफी मांगनी चाहिए ?  क्या हम विश्वास कर सकते हैं कि आगे से आप ब्रेकिंग न्यूज को लेकर ज्यादा गंभीर होगें ? अगर इतने बड़े चैनल पर हम भरोसा नहीं कर सकते तो प्लीज आप बताएं कि हम कौन सा चैनल देंखें ? जो कम से कम विश्वसनीयता के मानकों को पूरा करता हो।



Saturday 1 June 2013

धोनी पर क्यों खामोश है मीडिया ?

देश में एक बार फिर मीडिया का गैरजिम्मेदाराना रवैया देखने को मिला। आप सबको पता है कि आईपीएल 6 में क्या नहीं हुआ ? सट्टेबाजी हुई, स्पाँट फिक्सिंग हुई, खेल को प्रभावित करने के लिए लड़कियों की सप्लाई हुई, देश के करोंडो खेल प्रेमियों के आंख में धूल झोंका गया। इतने गंभीर अपराधों का खुलासा होने के बाद तो इसके जिम्मेदार लोगों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करते हुए उन्हें जेल भेजने की बात होनी चाहिए थी। लेकिन देश का अपरिपक्व मीडिया श्रीनिवासन के इस्तीफे के लिए गिड़गिड़ाता रहा। एक बात मेरी समझ में नहीं आ रही है कि क्या बीसीसीआई अध्यक्ष एन श्रीनिवासन और आईपीएल चेयरमैन राजीव शुक्ला के इस्तीफा दे देने से सब कुछ ठीक हो जाएगा ? दो महीने से जो खेलप्रेमी हजारों रुपये का टिकट लेकर मैच देख रहे थे या जो लोग मैच के दौरान सारे काम छोड़कर टीवी से चिपके रहते थे, उन्हें जो धक्का लगा है, उसकी जवाबदेही किसकी होगी? इस्तीफा हो जाने के बाद मीडिया भी खामोश होकर किनारे बैठ जाएगा। मेरा मानना है कि मीडिया ने अगर सूझबूझ और जिम्मेदारी से अपना काम किया होता तो उसके कैमरे श्रीनिवासन के आगे पीछे नहीं घूमते, बल्कि देश के करोड़ों लोगों को सरेआम ठगने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई के लिए प्रधानमंत्री और केंद्र सरकार के गृहमंत्री के पीछे कैमरा घूमता दिखाई देता।  मीडिया की मांग भी ये होनी चाहिए थी कि दर्शकों से वसूले गए टिकट के पैसे वापस किए जाएं और बीसीसीआई और आईपीएल से जुड़े अधिकारियों को जेल भेजा जाए।

मैं कई बार मीडिया खासतौर पर इलेक्ट्रानिक मीडिया के कामकाज के तरीकों पर सवाल उठा चुका हूं। मेरा मानना है जल्दबाजी और अनुभवहीनता के चलते मीडिया बगैर जाने समझे कुछ भी शोर मचाने लगती है। हफ्ते भर से ज्यादा हो गया, ये सब एक प्राईवेट संस्था के अध्यक्ष से इस्तीफा मांग रहे है। मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि इस्तीफे से भला क्या हो जाएगा ? क्या  क्रिकेट को जो धक्का लगा है, क्रिकेट प्रेमियों के विश्वास को जो छला गया है, वो ठीक हो जाएगा ? चलिए मान लीजिए श्रीनिवासन ने इस्तीफा दे दिया और जेटली अध्यक्ष बन गए ! इससे क्या बदल जाएगा ? मुझे पक्का यकीन है मीडिया ने अगर इस विवादित, ढीठ, गैंडे की खाल ओढ़े श्रीनिवासन के बजाए केंद्र सरकार के खिलाफ एकजुट होकर ऐसा अभियान चलाया होता तो शायद आज क्रिकेट की तस्वीर बदल गई होती। देश भर के क्रिकेट प्रेमियों की आंख में जिस तरह से धूल झोंका गया और आईपीएल के मैंचो में सट्टेबाजी, फिक्सिंग हुई, ये एक संगठित अपराध की श्रेणी में है। इसमें खिलाड़ी, टीम के मालिक, अंपायर और बुकीज सब मिले हुए है। इन सबको जेल होनी चाहिए। लेकिन मीडिया यहां अपनी कम जानकारी की वजह से चूक गया, जिसका फायदा निश्चित ही बीसीसीआई को हुआ। मीडिया ने अपनी पूरी ताकत एक गैंडे जिसका कोई वजूद नहीं, उसके खिलाफ लगा दिया।

मैं ये भी जानता हूं एक दो दिन में श्रीनिवासन का इस्तीफा हो जाएगा। सभी न्यूज चैनल इसे अपनी जीत बताने लगेंगे। न्यूज चैनलों पर पहले मैं, पहले मैं की होड़ लग जाएगी। और इस  गंभीर मुद्दे की यहीं हत्या हो जाएगी। राजस्थान रायल्स की टीम के कुछ खिलाड़ी स्पाँट फिक्सिंग में धरे गए, उसके बाद बीसीसीआई ने उन पर दबाव बनाया कि वो भी खिलाड़ियों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराएं। बीसीसीआई के कहने पर राजस्थान टीम मैनेजमैंट ने अपने खिलाड़ियों के खिलाफ खुद भी रिपोर्ट दर्ज करा दिया। मेरा सवाल है कि चेन्नई सुपर किंग को बीसीसीआई अध्यक्ष श्रीनिवासन ने क्यों नहीं कहा कि वो अपने मालिक यानि गुरुनाथ मयप्पन के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराएं ? बस इसीलिए ना कि चेन्नई सुपर किंग के बाप जी यानि श्रीनिवासन खुद बीसीसीआई के अध्यक्ष हैं ? आईपीएल का नियम है कि अगर किसी फ्रैंचाइजी का मालिक गलत काम में शामिल पाया जाता है तो उस टीम को ब्लैक लिस्टेड कर दिया जाना चाहिेए। चेन्नई टीम के मालिक मयप्पन को तो पुलिस ने गिरफ्तार तक कर लिया, फिर भी उसे आईपीएल में आज तक क्यों बनाए रखा गया ? मीडिया ने ये सवाल आज तक नहीं उठाया।

आजकल मीडिया नैतिकता पर बहुत जोर दे रही है। जिससे भी इस्तीफा मांगना होता है, उसे नैतिकता के कटघरे में खड़ा कर देती है और इस्तीफे की मांग शुरू हो जाती है। मैं कहता हूं कि नैतिकता अपेक्षा भारतीय टीम के कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी से क्यों नहीं होनी चाहिए ? आपको इसकी वजह जाननी है तो मैं गिनाता हूं। भारतीय टीम के कप्तान धोनी बीसीसीआई अध्यक्ष श्रीनिवासन की कंपनी इंडिया सीमेंट में वाइस प्रेसीडेंट हैं। पहले वो एयर इंडिया में थे,  लेकिन श्रीनिवासन जब बीसीसीआई के अध्यक्ष बने और चेन्नई सुपर किंग टीम उन्होंने ली, तब धोनी एयर इंडिया से इस्तीफा देकर उनकी कंपनी से जुड़ गए । श्रीनिवासन के दामाद जो सट्टेबाजी के आरोप में गिरफ्तार है, उसका बयान है कि वो सट्टा लगाने से पहले धोनी से राय लिया करता था। इतना ही नहीं जिस सट्टेबाज विंदु दारा सिंह पर गंभीर आरोप लगा है कि वो सट्टेबाजी करता था, स्पाँट फिक्सिंग में उसका हाथ था, बुकीज के संपर्क में था, लड़कियों की सप्लाई करता था, वो विंदु धोनी और उनकी पत्नी का अभिन्न मित्र है। स्टेडियम में विंदु दारा सिंह भारतीय टीम के कप्तान धोनी की पत्नी साक्षी के साथ बैठ कर आईपीएल का मैच देख रहा था। मेरा सवाल है कि साक्षी क्यों विंदु दारा सिंह के साथ मौजूद थी ? वहां तो बहुत सारे सलेबिटीज मौजूद होते हैं, फिर विंदु ही क्यों ? क्या यहां नैतिकता का तकाजा नहीं है कि धोनी सफाई दें और जब तक मामले की जांच पूरी ना हो जाए वो कप्तानी छोड़ दें। छोटे मोटे खिलाड़ियों को पकड़ना और जेल में डालना आसान है, लेकिन धोनी जैसों पर हाथ डालने में सब सौ बार सोचते हैं। लेकिन बात नैतिकता की है तो धोनी भी नैतिक नहीं रह गया है।

मुझे लगता है कि अगर आज मीडिया ने केंद्र सरकार को निशाने पर लिया होता तो अब तक तस्वीर बदल चुकी होती। आप सब जानते हैं कि सरकार को देश के तमाम मंदिरों का अधिग्रहण करने में कोई दिक्कत नहीं हुई। जैसे माता वैष्णों देवी, माता विंध्यवासिनी देवी, बाबा विश्वनाथ, तिरुपति बाला जी समेत सैकड़ों ऐसे मंदिर हैं, जिसका अधिग्रहण करने में सरकार को कोई हिचक नहीं रही। लेकिन बीसीसीआई जिसके खिलाफ बेईमानी के पुख्ता सबूत मौजूद है, उसके खिलाफ कार्रवाई में सौ बार सोचना पड़ रहा है। अगर सरकार में इच्छाशक्ति होती तो अब तक बीसीसीआई के मुख्यालय मुंबई में तालाबंदी हो चुकी होती। बीसीसीआई को भंग कर सरकार इसे अपने नियंत्रण में ले चुकी होती। लेकिन इसमें मुश्किल ये है कि बीसीसीआई में काग्रेस और बीजेपी के नेता ही नहीं बल्कि सरकार के सहयोगी दलों के भी तमाम नेता शामिल हैं। क्रिकेट एक ऐसा मामला है जहां हमाम में सभी नंगे हैं। बताइये गुजरात के मुख्यमंत्री जो बीजेपी से प्रधानमंत्री पद के लिए सशक्त दावेदारों में हैं, वो भी बीसीसीआई के आगे ऐसे दबे हुए हैं कि पूरे मामले में एक बार भी मीडिया के सामने नहीं आए। ऐसे नेता जब भ्रष्टाचार को लेकर आग उगलते हैं तो उनकी जुबान से बदबू आने लगती है। जेटली साहब की क्या बात है,  राज्यसभा में इनकी बड़ी-बड़ी बाते सुन लीजिए। लेकिन श्रीनिवासन के मामले में उसका तलुवा चाटते नजर आए। बिल्कुल बोलती बंद थी।

आपको पता है कि जब बात होती है कि बीसीसीआई को आरटीआई में शामिल किया जाए। यानि ये संस्था भी देश के नागरिकों के प्रति जवाबदेह हो। जो जानकारी आम आदमी चाहता है वो देने को बीसीसीआई मजबूर हो। इस पर कहा जाता है कि बीसीसीआई गैरसरकारी संस्था है, इसलिए इस पर आरटीआई नहीं लागू हो सकती। इन गैंडो से कोई पूछे कि इन पर सट्टेबाजी, स्पाँट फिक्सिंग, लड़कियों का शोषण ये सब इस्तेमाल करने की छूट है? आपको पता है कि खिलाडियों को अगर कोई सम्माम दिया जाता है तो उसकी प्रक्रिया क्या है ? मैं बताता हूं । देश में लगभग 40 खेलसंघ सरकार के खेल मंत्रालय से मान्यता प्राप्त है। पुरस्कार देने के लिए ये संघ ही खिलाड़ियों का नाम प्रस्तावित करते हैं, तभी खिलाड़ियों को पद्मश्री, अर्जुन पुरस्कार या अन्य राष्ट्रीय सम्मान मिलता है। लेकिन आज तक तमाम क्रिकेटर्स को राष्ट्रीय सम्मान मिल चुका है, कोई पूछे कि इनके नाम की सिफारिश किसने की ? पता चल जाएगा, यही विवादित बीसीसीआई इनका नाम भेजती है और हमारी सरकार उसे मान भी लेती है। मेरा सवाल है कि जब सरकार की बात मानने के लिए बीसीसीआई बाध्य नहीं है, तो इनके भेजे नाम पर राष्ट्रीय पुरस्कार भला कैसे दिए जा सकते हैं ? जवाब यही है कि हमाम में सब नंगे हैं।

सच कहूं ! बहुत सारी वजह हो सकती है जिससे बीसीसीआई पर नकेल कसी जा सके। लेकिन इस गोरखधंधे में लगभग सभी राजनीतिक दल के लोग शामिल हैं। इसलिए आज तक ये धंधा यूं ही चलता चला आ रहा है। दरअसल मीडिया की मजबूरी है, उसे लगता है कि देश में क्रिकेट बिकता है, इसलिए उसे क्रिकेट की खबरें दिखाना मजबूरी है। मै पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं कि मीडिया ने श्रीनिवासन के इस्तीफे को लेकर जिस तरह की एकजुटता दिखाई है, अगर यही एकजुटता बीसीसीआई पर लगाम कसने को लेकर दिखाती तो अब तक इसमें काफी सुधार हो चुका होता। वैसे अब ये मुद्दा गरम है, मीडिया को यहां ईमानदार होना पडेगा, उसे भूल जाना होगा कि धोनी उन्हें इंटरव्यू देता है या नहीं, बीसीसीआई के अधिकारी उन्हें अपने पास बैठाते हैं या नहीं। निष्पक्ष होकर वो बात करनी होगी, जिससे क्रिकेटप्रेमी कभी निराश ना हों। अगर मीडिया को लगता है कि आईपीएल में चीयरगर्ल यानि महिलाओं का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए, तो इसी तरह एकजुटता दिखानी होगी। वरना तो इस खेल में सट्टेबाजी, स्पाँट फिक्सिंग और लकडीबाजी यूं ही चलती रहेगी।